हेमकुंड साहिब सिक्खों का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। कहा जाता है कि हेमकुण्ड (लोकपाल) नामक स्थान सिक्खों के दसवे गुरू गोबिन्द सिंह के पुनर्जन्म की तपोस्थली है। यहाँ गुरू गोविन्द सिंह जी ने अपने पुनर्जन्म में ईश्वर की साधना करके ज्ञान प्राप्त किया। था। इसका वर्णन इन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ विचित्र नाटक में करते हुये कहा है कि –
“हेमकुण्ड पर्वत है जहाँ, सप्तश्रृंग सोहत है वहाँ। ताई हम अधिक तपस्या साधी, महाकाल कालिका आराधी ।एहि विधि करत तपस्या भयो, द्वेत ते इक रूप हयो गयो” ।
गुरू गोविन्द सिंह ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ विचित्र नाटक में लिखा है कि पिछले जन्म में उनका नाम दुष्टदमन था उन्होने हेमकुण्ड साहब नामक स्थान पर पर्वत चोटी पर स्थित सरोवर के निकट तपस्या की थी और वे निरंकार से एक रूप हो गये। उन्होंने कहा कि मेरे माता-पिता ने पुत्र की प्राप्ति के लिये अकालपुर्ख की बहुत आराधना की।
परमात्मा ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मुझे उनके घर में पुत्र के रूप में जन्म लेने का आदेश दिया। किन्तु मैं यहाँ जन्म लेकर नहीं आना चाहता था, मैं तो प्रभु के चरणों में लीन था, अकालपुर्ख के समझाने पर मैं उनसे आज्ञा लेकर इस संसार में आया। गुरू गोविन्द जी ने लिखा है कि अकालपुर्ख ने मुझे भेजते समय आज्ञा दी और कहा कि मैं अपना बेटा बनाकर भेज रहा हूँ, संसार में जाकर गरीबों की रक्षा हेतु पंथ का निर्माण करें।
अतः पवित्र धाम हेमुकुण्ड साहब की यात्रा करने एवं दर्शन से पूर्व हमें सिक्खों के महान दसवे गुरू गोविन्द सिंह के सम्बंध में सामान्य जानकारी होना आवश्यक है। सिक्खों के अन्तिम एवं दसवे गुरू गोविन्द सिंह का जन्म बिहार प्रान्त के पटना नामक जिले में 22 दिसम्बर 1666 को गुरू तेग बहादुर के यहाँ हुआ, गुरू तेग बहादुर नवे गुरू थे। गोविन्द सिंह की माँ का नाम गुजरी था। गोविन्द सिंह के जन्म के समय उनके पिता तेग बहादुर सिंह असम में धर्म उपदेश देने हेतु गये हुये थे।
जिस घर में इनका जन्म हुआ था उस स्थान को आज हम तख्त श्री पटना साहिब के नाम से जानते है। 1672 में गोविन्द सिंह जी का परिवार हिमालय के शिबालिक पहाडियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया जिसे हम आज आनन्दपुर साहिब के नाम से पुकारते है। गोविन्द सिंह का मूल नाम गोविन्द राम था। गोविन्द सिंह को सैन्य जमाव व ज्ञान अपने दादा गुरू हरगोविन्द सिंह जी से प्राप्त हुआ था।
गोविन्द सिंह जी को फारसी, संस्कृत, अरवी और पंजाबी भाषा जो कि उनकी अपनी मातृ भाषा थी का पूर्ण ज्ञान था। गोविन्द सिंह जी प्रति दिन आनन्दपुर साहिव में अध्यात्मिक चर्चा करते एवं जनमानस में ज्ञान बाटते हुये मनुष्यों में नैतिकता, निडरता एवं आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनन्दपुर साहिब आनन्दधाम के रूप में कार्य कर रहा था यहाँ सभी लोग जाति, वर्ग, रंग, सम्प्रदाय के भेदभाव को भूलकर सामनता, समता, समरसता के साथ अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे।
गोविन्द सिंह जी उस समय की आतंकवादी शक्तियों को नष्ट करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिये अवतरित हुये थे। गोविन्द सिंह बचपन में बहुत शरारती थे किन्तु उन्होने अपनी शरारतों से कभी किसी को दुख नही पहुचाया, गोविन्द सिंह के घर के पास ही एक निःसन्तान बुढिया रहती थी जो कि सूत कातकर अपना गुजारा करती थी, गोविन्द सिंह जी उसकी रूई की पुनियों को बिखेर दिया करते थे जिससे वह बुढिया गोविन्द सिंह की शिकायत उनकी माँ से करती थी।
गोविन्द सिंह की माता उसे कुछ पैसे देकर खुश कर दिया करती थी। एक दिन माँ ने गोविन्द सिंह से उस बुढिया को परेशान करने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि माँ यदि में उसे परेशान नहीं करूंगा तो वह तुम्हारे पास नहीं आयेगी। मैं परेशान करता हूँ तभी वह तुम्हारे पास आती है और आप उस गरीब को कुछ पैसे देकर मदद कर देती हो, इसलिये मैं उसे परेशान करता हूँ।
एक बार औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं को जबरन धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बनाये जाने के विरोध में सहायता हेतु कई कश्मीरी ब्राह्मण गुरू तेग बहादुर के पास आये उस समय गुरू गोविन्द सिंह की उम्र मात्र ६ वर्ष की थी तब उन्होंने उन कश्मीरी ब्राह्मणों का कष्ट जानकर अपने पिता तेग बहादुर से निवेदन किया, कि आपसे महान एवं शक्तिशाल कौन है, आपको इन लोगों की मदद करना चाहिये उनके इस निवेदन पर गुरू तेगबहादुर कश्मीरी ब्राह्मणों के ऊपर औरंगजेब द्वारा किये जाने वाले इस अत्याचार का विरोध करने के लिये चल दिये।
जबरन मुसलमान बनाये जाने एवं स्वयं इस्लाम धर्म स्वीकार न करने के कारण 11 नवम्बर 1675 को दिल्ली में औरंगजेब ने गुरू तेगबहादुर का सिर कलम करवा दिया। गुरू तेगबहादुर की हत्या हो जाने के कारण वैशाखी के दिन 26 मार्च 1676 को गोविन्द सिंह सिक्खों के दसवें गुरू घोषित हुये। इस प्रकार गोविन्द सिंह 10 वर्ष की आयु में ही गुरू बन गये।
गुरू गोविन्द सिंह ने अपने सिक्ख अनुयायियों को भौतिक सुख-सुविधाओं एवं ऐशो आराम से दूर रहने का संदेश दिया। उन्होने पीड़ित एवं दुखियों की सहायता के लिये हमेशा तत्पर रहने का निर्देश दिया। गुरू गोविन्द सिंह को बचपन से ही भौतिक सुखों में कोई रूचि नहीं थी। एक बार गोविन्द सिंह के चाचा ने उन्हे सोने के दो कड़े दिये थे किन्तु सोने में रूचि न होने के कारण एक कडा खेलते समय कही गिर गया। जब उनकी माता ने उनसे पूछा कि कडा कहाँ गिर गया तो उन्होंने दूसरा कड़ा भी नदी में गिराते हुये कहा कि यहाँ गिर गया।
गुरू गोविन्द सिंह की पत्नियाँ –
गुरू गोविन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थी । जब उनकी उम्र 10 वर्ष की थी तब 1677 में उनका विवाह आनन्दपुर से 10 किलो मीटर की दूरी पर स्थित बसन्तगढ में माता जीतो के साथ हुआ । इनके द्वारा तीन पुत्र हुये जोराव सिंह, जुझार सिंह, और फतेह सिंह। जब गोविन्द सिंह 17 वर्ष की आयु के हुये तो 1684 में उनका विवाह आनन्दपुर में माता सुन्दरी के साथ हुआ इनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम अजित सिंह था । 33 वर्ष की आयु 15 अप्रैल 1700 में उनका विवाह माता साहिब देवन से हुआ इनके कोई संतान नहीं थी ।
10 वर्ष की आयु में गुरू बनने के बाद भी गुरू की प्रतिष्ठा हेतु उन्होंने अपना ज्ञान बढाया। उन्होंने धनुष वाण, तलवार, भाला आदि चलाना सीखा तथा हथियारों को प्रयोग करने की कला में निपुणता प्राप्त की। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाया ताकि वह मुगलों से अपने धर्म की रक्षा कर सकें। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और अपनी तथा अपने समाज की रक्षा करने के लिये संकल्पबद्ध किया, और उन्हें मानवता तथा भाईचारे का पाठ पढाया। गोविन्द सिंह ने कई हथियारों को प्रयोग करने में महारत हासिल की तथा युद्ध कला में निपुणता हासिल की।
कुछ विशेष अवसरों पर प्रयोग करने के लिये उन्होने कुछ विशेष अस्त्र-शस्त्रों का भी निर्माण किया। उनके द्वारा प्रयोग में लाया गया नागिनी वरछा आज भी नांदेड के हुजूर साहिब में मौजूद है। मुगल सेना के पागल हाथियों को मारने के लिये यह बेजोड हथियार था। हालाकि गुरू गोविन्द सिंह बचपन से ही हथियारों एवं युद्धकला में रूचि रखते थे। किन्तु उन्होंने किसी लालच अथवा अपनी सत्ता को बढाने अथवा किसी राज्य पर अधिकार करने के लिये कभी युद्ध नहीं लडा । उन्हें अन्याय एवं अत्याचार से नफरत थी किसी भी प्राणी पर होने वाले अत्याचार के लिये वह किसी से भी लोहा लेने के लिये तैयार रहते थे। फिर चाहे वह कोई भी हो हिन्दू अथवा मुगल राजा।

गोविन्द सिंह को उस समय के राजाओं के अत्याचार से बहुत चिढ थी। आम जनता पर होने वाले अत्याचार को वह सहन नहीं करते थे। इसके लिये उन्होने अकेले ही मुगल राजाओं, गढ़वाल नरेश, तथा शिवालिक क्षेत्र के कई राजाओं से युद्ध लडे थे। उनकी वीरता उनकी ये पंक्तियाँ बयाँ करती है – सवा लाख से एक लडाऊ, चिडियों सों मै बाज तडऊँ, तबे गोविन्द सिंह नाम कहाऊँ ।
गुरू गोविन्द साहब हथियारों के प्रयोग करने की कला के साथ साथ लेखन कला के भी धनी थे उन्होंने तमाम सिक्ख ग्रन्थों में गुरू की आराधना की शानदार रचनायें लिखी, उनकी इन रचनाओं को सबद कीर्तन के रूप में संगीत के साथ गाया जा सकता है। गुरू गोविन्द सिंह ने संगीत के क्षेत्र में अपने लिये कई वाद्य यंत्रों का निर्माण किया। गुरू गोविन्द सिंह द्वारा बनाये गये टॉस और दिलरूबा वाद्य यंत्र आज भी संगीत के क्षेत्र में प्रयोग किये जाते है समय के साथ इनके रूप एवं आकार में परिवर्तन हुआ है। गुरू गोविन्द सिंह जी को इसी कारण “संत सिपाही” भी कहा जाता है।
गुरू गोविन्द सिंह जी ने मार्च 1666 में आनन्दपुर पंजाब में अपने अनुयायियों के साथ मिलकर देश हित के लिये बलिदान करने वालों का एक समूह बनाया। कहा जाता है कि 1666 में आनन्दपुर साहिब के दरबार में जहाँ हजारों व्यक्तियों की भीड़ थी में गुरू गोविन्द सिंह जी ने नंगी तलवार से एक शीश की माँग की सबसे पहले दयाराम जी लाहौर वाले ने अपना शीश भेंट किया। गुरू जी उसे पकडकर तम्बू के अन्दर ले गये, जब गुरू जी तम्बू से बाहर आये तो उनकी तलवार खून से सनी हुई थी। बाहर आने के बाद उन्होने फिर एक शीश की माँग की इस तरह दयाराम, धर्मचन्द, हिम्मतराय, मोहकम चन्द्र, साहिब राम ने अपना शीश देने का प्रस्ताव रखा था।
अन्त में जब साहिव राम के बाद गुरू गोविन्द सिंह तम्बू से बाहर आये तो उनके साथ यह पाँच प्यारे भी बाहर आये। गुरू गोविन्द सिंह ने फिर एक लोहे के कटोरे में पानी और शक्कर लेकर उसे दुधारी तलवार से घोला और इसे अमृत का नाम दिया। इन पाँचों को अमृत पिलाया तथा उन्हें खालसा का नाम दिया उन पाँचों के निवेदन पर गोविन्द सिंह जी ने भी अमृतपान किया और वह भी खालसा दल के सदस्य बन गये।
इस समूह को उन्होंने खालसा पंथ के नाम से पुकारा। खालसा शब्द फारसी से लिया गया शब्द है जिसका अर्थ है – खालिस अर्थात शुद्ध, निर्मल बिना मिलावट वाला व्यक्ति। खालसा भारतीय मर्यादा एवं संस्कृति की एक पहचान है जो हमेशा प्रभु का स्मरण करता हुआ अपने कर्म को अपना धर्म मानते हुये अन्याय के विरोध में खड़ा रहता है। इसके लिये गुरू गोविन्द सिंह ने एक नारा दिया- वाहे गुरु जी का खालसा वाहेगुरू जी की फतेह। गोविन्द सिंह जी के अनुसार खालसा का यह धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता के लिये तन, मन धन सब न्यौछावार कर दें। जो ऐसा करता है वही खलिस है, वही सच्चा खालसा है। युद्ध के लिये सदा तैयार रहने वाले सिक्खों के लिये पाँच ककार –
- केश – जिसे सभी गुरू और ऋषि मुनि धारण करते थे।
- कंघा – केशों को साफ करने के लिये।
- कच्छा – स्फूर्ति के लिये।
- कडा – नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिये।
- कृपाण – आत्म रक्षा के लिये।
इन्हें अनिवार्य कर दिया गया। आज भी सिक्ख इन्हें धारण करना अपना गौरव समझता है। गोविन्द सिंह ने अपनी रचना जफरनामा में लिखा है कि जब सत्य और न्याय के लिये सभी साधन असफल हो जायें तब तलवार को धारण करना उचित है। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने समानता स्थापित की। गोविन्द सिंह का स्पष्ट मत था कि – “मानस की जात सभै एक है”
वो पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आये थे और समाज की अलग-अलग जातियों और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें गुरू गोविन्द सिंह ने एक ही कटोरे में अमृत पिलाकर एक कर दिया। उन्होंने समाज में जाति व सम्प्रदाय का भेद समाप्त कर सभी को एक बना दिया। सिक्खों के मध्य गुरू पद लेकर कोई विवाद न हो इसके लिये गुरू गोविन्द सिंह ने “गुरू ग्रन्थ साहिब” को अन्तिम गुरू का दर्जा दिया तथा इसका श्रेय प्रभु को देते हुये उन्होंने कहा “आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयो पंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरू मानियहु ग्रंथ”। उन्होंने सिक्ख गुरूओं के सभी उपदेशों को गुरू ग्रंथ साहिब में संग्रहीत किया। उनके अनुसार गुरू का काम होता है अंधेरे से उजाले की ओर ले जाना। एक गुरू के रूप में खालसा पंथ ने लोगो को नई दिशा दिखाई।
गोविन्द सिंह काव्य के अच्छे ज्ञाता एवं ग्रंथकार थे। सिक्खों में शास्त्र ज्ञान का अभाव था जो गोविन्द सिंह को खटकता था उन्होने शास्त्र ज्ञान के लिये कई सिक्खों को ज्ञान अर्जित करने के लिये काशी भेजा था। यद्यपि सिक्ख सम्प्रदाय की निर्गुण उपासना है, पर सगुण स्वरूप के प्रति भी गुरू गोविन्द सिंह जी की पूर्ण आस्था थी। उन्होंने देव कथाओं की चर्चा बड़ी भक्तिभाव से की यह बात सत्य है कि वह शक्ति और भक्ति दोनों के ही अराधक थे।
उस समय देश एवं सिक्खों को एकता के सूत्र में बांधकर समाज की रक्षा करना उनका मूल उद्वेश्य था । उनके जीवन में कई दुःखद क्षण आये, किन्तु गोविन्द सिंह अपने पथ पर अडिग होकर चलते रहे। पिता गुरू तेगबहादुर की शहादत तथा उनके दो पुत्रों को मुगलों द्वारा दीवार में चुनवा देना तथा दो पुत्रों का युद्ध में शहीद हो जाना, ऐसे कई दुःखद क्षण उनके जीवन में उनके समक्ष आये। गुरू गोविन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्र की आन-बान शान के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरू गोविन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान बहुत कम देखने को मिलता है।
सत्य और न्याय की रक्षा के लिये जब सभी प्रयास विफल हो जाये तब तलवार उठाना उचित है, यह वाणी आज भी सिक्खों को प्रेरणा देती है। गुरू गोविन्द सिंह जी को सर्वांश दानी कहा जाता है। सामान्य जनता पर शासको द्वारा किये जाने वाले अत्याचार एवं शोषण के विरूद्ध उन्होंने लडाई में अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। अपने माता-पिता एवं चारों बेटों को उन्होंने “खालसा” के नाम पर कुर्बान कर दिया। दुनिया के महान तपस्वी, कवि, योद्धा, संत सिपाही गुरू गोविन्द सिंह को सभी श्रद्धा एवं स्नेह से कलगीयां, सरवंश दानी, नीले वाला, बाला प्रीतम, दशमेश पिता आदि नामों से पुकारते है।
मुगलों से युद्ध करते समय गुरू गोविन्द सिंह जी की छाती में दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गई। अतः अपना अंतिम समय निकट जानकर उन्होने सभी सिक्खों को एकत्रित किया और उन्हे मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने, दीन दुखियों की सहायता करने की सीख दी तथा उनसे कहा कि उनके बाद कोई भी देहधारी गुरू नहीं होगा। केवल “गुरूग्रंथ साहिब” ही गुरू के रूप में उनका मार्गदर्शन करेंगे। 7 अक्टूबर 1708 में नांदेड, महाराष्ट्र में गुरू गोविन्द सिंह ने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली।
जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा बढती है और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश करने एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिये ईश्वर स्वयं इस भू तल पर अवतरित होते है। गुरू गोविन्द सिंह जी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुये कहा था – जब जब होत अनिष्ट अपारा। तब तब देह धरत अवतारा।
ऋषीकेश से बद्रीनाथ धाम जाने वाले राष्ट्रीय मार्ग पर लगभग 270 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। गोविन्द घाट यही से 20 कि.मी. के पैदल मार्ग की दूरी पर पर्वत के ऊपर स्थित है, हेमकुण्ड साहब। अलकनंदा और भ्यूंडार नदी के संगम पर गोविन्दघाट स्थित है यहाँ पर एक गुरूद्वारा भी है यहीं से हेमकुण्ड साहब एवं फूलों की घाटी जाने का पैदल मार्ग प्रारम्भ होता है।
गोविन्द घाट पर पुल पार करके हेमकुण्ड साहब जाने की पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है इस यात्रा का प्रथम पड़ाव होता है घाघरिया। गोविन्द घाट से यात्री अपनी आवश्यकता का सामान लेकर चलते है, रास्ते में अनेक झरने हरे भरे पेड़ों के जंगल और नाना प्रकार के पक्षी देखने को मिलते है। प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रेमी यह सब देखने से अत्याधिक आनंदित होते है उनको प्राप्त होने वाला यह आनन्द उनकी इस कठिन चढ़ाई की थकान को भुला देता है।
गोविन्द घाट से पर्वत पर पगडंडीनुमा रास्ते से चलते हुये लगभग 8 कि.मी. की दूरी पर भ्यूंडार नामक गाँव आता है। यहाँ से एक रास्ता प्रसिद्ध तीर्थस्थल काक-भुशिंडी की ओर जाता है जिसकी दूरी लगभग 18 कि.मी. पडती है। काक-भूशिंडी में लगभग 17 हजार फुट ऊँचाई पर दो पर्वत श्रेणियों की चोटियाँ दिखाई देती है एक विशेष प्रकार की काली चोटी जो कि चोचनुमा दिखाई देती है दूसरी बर्फ से ढकी हुई सफेद चोटी, पंखनुमा बनावट की दिखाई देती है। इन्हें काक-भुशिंडी के नाम नाम से जाना जाता है। किन्तु हेमकुण्ड साहब की यात्रा करने वाले यात्रियों में से नाम मात्र के लिये ही यात्री यहाँ दर्शन हेतु जाते हैं।
भ्यूंडार में विश्राम एवं चाय नाश्ता के बाद यात्री घाघरिया की ओर चल देते है जो कि यहाँ से लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर है । भ्यूंडार से घाघरिया की ओर चलते समय मार्ग में चारों ओर रंग बिरंगे फूल मिलते है तथा साथ में चलती हुई लक्ष्मण गंगा नदी के जल की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। घाघरिया में रेस्ट हाउस एवं विश्राम गृह भी हैं यहाँ एक गुरूद्वारा भी है जहाँ यात्री ठहर सकते हैं यहाँ एक छोटा सा बाजार है जहाँ आवश्यकता की वस्तुऐं प्राप्त हो जाती है। यहाँ का शांत प्राकृतिक वातावरण यात्रियों की थकान को भुला देता है। कुछ यात्री तो रात्रि विश्राम यहीं करते हैं किन्तु कुछ उत्साही एवं साहासी यात्री उसी दिन हेमकुण्ड साहब की ओर चल देते हैं।
रात्री विश्राम के बाद हेमकुंड साहिब के लिए अगले दिन का सफर –
अधिकांश यात्री जो घाघरिया में ही रात्री विश्राम करते हैं वह सभी प्रातः ही हेमकुण्ड साहब के दर्शन हेतु प्रस्थान कर देते है ताकि दर्शन आदि कार्य करके रात्री तक गोविन्द घाट पर वापस पहुंचा जा सके। घाघरिया से लगभग एक कि.मी. चलने पर मार्ग दो भागों में विभाजित हो जाता है एक मार्ग बाई और वाला फूलों की घाटी की ओर चला जाता है फूलों की घाटी यहाँ से लगभग 4 कि.मी. की दूरी पर स्थित है जहाँ लगभग 250 प्रकार के वनफूल मौजूद है। इस स्थान की ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 12500 फुट है। घाघरिया से हेमुण्ड साहब का मार्ग कठिन एवं थकाने वाला है।
यह एक खड़ी चढ़ाई है अतः सामान्य व्यक्ति की सांस फूलने लगती है। हेमकुण्ड गुरूद्वारा आने से पूर्व मार्ग में ग्लेशियर भी मिलता है। इसके आगे चलने पर यात्री स्वयं को हेमकुण्ड साहिब के सामने पाता है। हेमकुण्ड साहिव समुद्र तल से लगभग 14500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। बर्फ से ढकी हुई पर्वत चोटियों के मध्य लगभग ढेड कि.मी. के क्षेत्रफल की परिधि में नीले पानी की झील है जिसे हेमकुण्ड के नाम से जाना जाता है।
इस सरोवर का जल अत्यन्त ठण्डा स्वच्छ एवं निर्मल है चारों ओर के पहाड़ी शिखरों की छाया इस सरोवर में स्पष्ट दिखाई देती है। यात्री इन सब को देखकर आनंदित हो जाता है। इस सरोवर में स्नान करके यात्री अपने को बहुत भाग्यशाली मानता है। और सच भी है क्योंकि इसके दर्शन प्रत्येक व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं है।
लक्ष्मण मन्दिर हेमकुंड साहिब –
हेमकुण्ड सरोवर के एक ओर विशाल गुरुद्वारा बना हुआ है जहाँ श्रद्धालु गुरूग्रन्थ साहिब के आगे शीश झुकाते है और गुरूग्रंथ साहिब से आशीर्वाद प्राप्त करते है। सरोवर के दूसरी ओर लक्ष्मण जी का मन्दिर है धार्मिक कथा के अनुसार यहाँ लक्ष्मण जी ने रावण वध के उपरान्त ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिये तप किया था। इसी प्रकार गुरू गोविन्द सिंह जी ने अपने पूर्व जन्म में यहाँ ईश अराधना करके बोध प्राप्त किया था। लक्ष्मण मन्दिर एवं गुरूद्वारे में दर्शन के उपरान्त यात्री को ऐसा महसूस ही नहीं होता है कि वह इतनी कठिन यात्रा करके यहाँ आया है वह अपने आप में एक रोमांचकारी आनन्द को अनुभव करता है। यहाँ पर स्थित गुरूद्वारे में लंगर की व्यवस्था है।
लक्ष्मण मन्दिर एवं गुरूद्वारे के दर्शन के बाद यात्री यहाँ के अनुभव एवं यादों को मन में सजोये हुये वापस उसी मार्ग से अपने पडाव तक आ जाते है। जिन यात्रियों को हृदय अथवा दमा से सम्बंधित बीमारी हो उन्हे यहाँ की यात्रा नहीं करना चाहिये। क्योकि यहाँ की ऊँचाई एवं कठिन यात्रा उनके लिये घातक हो सकती है।